মাখনলাল চতুর্বেদী
এক ভারতীয় কবি, সাহিত্যিক, প্রাবন্ধিক, নাট্যকার এবং সাংবাদিক। ভারতের স্বাধীনতা সংগ্রামে তার যোগদান এবং হিন্দি সাহিত্যে 'ছায়াবাদ' তথা 'নিও রোমান্টিক' ধারার প্রবর্তনের জন্য প্রসিদ্ধি সর্বজন বিদিত।১৯৫৫ খ্রিস্টাব্দে তিনি প্রথম 'হিমতরঙ্গিনী' গ্রন্থের জন্য সাহিত্য অকাদেমি পুরস্কারে সম্মানিত হন।
১৯৬৩ খ্রিস্টাব্দে ভারত সরকার তাঁকে বেসামরিক সম্মান পদ্মভূষণে সম্মানিত করে।
জন্ম ভারতের মধ্যপ্রদেশ রাজ্যের হোশঙ্গাবাদ জেলার বাবাই গ্রামে ১৮৮৯ খ্রিস্টাব্দের ৪ ঠা এপ্রিল।
माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने प्रारंभिक प्राथमिक शिक्षा गांव के स्कूल से ही प्राप्त की। इसके बाद में उन्होंने संस्कृत, बंगला, अंग्रेजी, गुजराती आदि कई भाषाओं का ज्ञान घर से प्राप्त किया ।
माखनलाल चतुर्वेदी ने 1986 से 1910 तक विद्यालय में अध्यापन का कार्य किया। लेकिन जल्द ही माखनलाल ने अपने जीवन और लेखन कौशल का उपयोग देश कीस्वतन्त्रता के लिए करने का निर्णय ले लिया। उन्होंने असहयोग आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन जैसी गतिविधियों में बढ़- चढ़ भाग लिया। जिसके चलते वे कई बार जेल गए और जेल में भी कई अत्याचारों को सहना पड़ा। लेकिन अंग्रेज उन्हे कभी भी अपने पथ से विचलित नहीं कर सके।
1910 में अध्यापन कार्य छोड़ने के बाद माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रिकाओं में संपादक का रूप के रूप में काम करने लगे और उन्होंने “प्रभा” और “कर्मवीर” नाम के राष्ट्रीय पत्रिकाओं में संपादन का कार्य किया। पंडित जी ने अपने लेखन शैली से देश के एक बहुत बड़े हिस्से में देश प्रेम की भावना को जागृत किया उनके भाषण भी उनके लेखों की तरह ही शक्ति पूर्ण और देश प्रेम से ओत-प्रोत होते थे। माखनलाल चतुर्वेदी 1943 में ‘अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन’ की अध्यक्षता की। उनकी कई रचनाएं देश के युवाओं में जोश भरने जागृत करने के लिए सहायक है।
ষোল বৎসর বয়সে তিনি বিদ্যালয়ের শিক্ষক হন।
পরে তিনি জাতীয়তাবাদী পত্রিকা 'প্রভা', প্রতাপ এবং 'কর্মবীর' এর সম্পাদক হন .
বৃটিশ শাসনামলে বহুবার কারারুদ্ধ হন।
স্বাধীনতার পর সরকারের পক্ষ না নিয়ে সামাজিক অপশক্তি বিরুদ্ধে মত পোষণ ও সোচ্চার হন এবং মহাত্মা গান্ধীর আদর্শে শোষণমুক্ত সমাজব্যবস্থার সমর্থন করেন।
রচনা কর্ম .
উপন্যাস -
- ‘कृष्णार्जुन युद्ध’ (1918 ई.),
- ‘हिमकिरीटिनी’ (1941 ई.),
- ‘साहित्य देवता’ (1942 ई.),
- ‘हिमतरंगिनी’ (1949 ई.- साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत),
- ‘माता’ (1952 ई.)।
- ‘युगचरण’,
- ‘समर्पण’ और ‘वेणु लो गूँजे धरा’ उनकी कहानियों का संग्रह ‘अमीर इरादे, ग़रीब इरादे’ नाम से छपा है।
इसके अलावा माखनलाल चतुर्वेदी की कुछ कविताएं जैसे-
- अमर राष्ट्र
- अंजलि के फूल गिर जाते हैं
- आज नयन के बंगले में
- इस तरह ढक्कन लगाया रात ने
- उस प्रभात तू बात ना माने
- किरणों की शाला बंद हो गई छुप-छुप
- कुंज कुटीरे यमुना तीरे
- गाली में गरिमा घोल-घोल
- भाई-छेड़ो नहीं मुझे मधुर मधुर कुछ गां दो मालिक
- संध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं।
उपलब्धियां
- अध्यापन कार्य प्रारंभ 1996,
- शिक्षण पद का त्याग
- तिलक का अनुसरण 1910 में,
- शक्ति पूजा लेकर राजद्रोह का आरोप 1912
- प्रभा मासिक का संपादन (1913),
- कर्मवीर से सम्बद्ध (1920)
- प्रताप का सम्पादन कार्य प्रारंभ (1923),
- पत्रकार परिषद के अध्यक्ष(1929),
- म.प्र.हिंदी साहित्य सम्मेलन (रायपुर अधिवेशन) के सभापति ,
- भारत छोड़ो आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता (1942) सागर वि.वि. से डी.लिट् की मानद उपाधि से सम्मानित (1959)
पुरस्कार
- 1943 में उस समय का हिंदी साहित्य का सबसे बड़ा ‘देव पुरस्कार’ माखन लाल जी ‘हिम किरीटिनी’ पर दिया गया था
- 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की स्थापना होने पर हिन्दी साहित्य के लिए प्रथम पुरस्कार पंडित जी को ‘हिमतरंगिनी’ के लिए प्रदान किया गया।
- ‘पुष्प की अभिलाषा’ और ‘अमर राष्ट्र’ जैसी ओजस्वी रचनाओं के रचयिता इस महाकवि के कृतित्व को सागर विश्वविद्यालय ने 1959 में डी.लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया।
- 1963 में भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया। 10 सितंबर 1967 को राष्ट्रभाषा हिन्दी पर आघात करने वाले राजभाषा संविधान संशोधन विधेयक के विरोध में माखनलालजी ने यह अलंकरण लौटा दिया।
- 16-17 जनवरी 1965 को मध्यप्रदेश शासन की ओर से खंडवा में ‘एक भारतीय आत्मा’ माखनलाल चतुर्वेदी के नागरिक सम्मान समारोह का आयोजन किया गया। तत्कालीन राज्यपाल श्री हरि विनायक पाटसकर और मुख्यमंत्री पं॰ द्वारकाप्रसाद मिश्र तथा हिन्दी के अग्रगण्य साहित्यकार-पत्रकार इस गरिमामय समारोह में उपस्थित थे।
- भोपाल का ‘माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय’ उन्हीं के नाम पर स्थापित किया गया है।
- उनके काव्य संग्रह ‘हिमतरंगिणी’ के लिये उन्हें 1955 में हिन्दी के ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।
তার স্মৃতিতে ১৯৮৭ খ্রিস্টাব্দ হতে ভারতীয় কবিদের শ্রেষ্ঠ কীর্তির জন্য বার্ষিক মাখনলাল পুরস্কার প্রদান ছাড়াও মধ্যপ্রদেশ সাহিত্য অকাদেমি তথা মধ্যপ্রদেশ সাংস্কৃতিক পরিষদ প্রতি বৎসর মাখনলাল চতুর্বেদী সমারোহের আয়োজন করে।
মধ্য প্রদেশের ভোপালে মাখনলাল চতুর্বেদী রাষ্ট্রীয় রাষ্ট্রীয় পত্রকারিতা এবং সমাচার বিশ্ব বিদ্যালয়কে তার সম্মানে নামকরণ করা হয়েছে . মাখনলাল চতুর্বেদী জাতীয় সাংবাদিকতা ও যোগাযোগ বিশ্ববিদ্যালয়.
पुष्प की अभिलाषा (Pushpa Kee Abhilasha)
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ
मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक ।।
কবিতা ২
उठ महान (Utha Mahaan)
उठ महान ! तूने अपना स्वर
यों क्यों बेंच दिया?
प्रज्ञा दिग्वसना, कि प्राण् का
पट क्यों खेंच दिया?
वे गाये, अनगाये स्वर सब
वे आये, बन आये वर सब
जीत-जीत कर, हार गये से
प्रलय बुद्धिबल के वे घर सब!
तुम बोले, युग बोला अहरह
गंगा थकी नहीं प्रिय बह-बह
इस घुमाव पर, उस बनाव पर
कैसे क्षण थक गये, असह-सह!
पानी बरसा
बाग ऊग आये अनमोले
रंग-रँगी पंखुड़ियों ने
अन्तर तर खोले;
पर बरसा पानी ही था
वह रक्त न निकला!
सिर दे पाता, क्या
कोई अनुरक्त न निकला?
प्रज्ञा दिग्वसना? कि प्राण का पट क्यों खेंच दिया!
उठ महान् तूने अपना स्वर यों क्यों बेंच दिया!
কবিতা ৩
कैसी है पहिचान तुम्हारी (Kaisi Hain Pahichan Tumhari)
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो !
पथरा चलीं पुतलियाँ, मैंने
विविध धुनों में कितना गाया
दायें-बायें, ऊपर-नीचे
दूर-पास तुमको कब पाया
धन्य-कुसुम ! पाषाणों पर ही
तुम खिलते हो तो खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!
किरणों प्रकट हुए, सूरज के
सौ रहस्य तुम खोल उठे से
किन्तु अँतड़ियों में गरीब की
कुम्हलाये स्वर बोल उठे से !
काँच-कलेजे में भी कस्र्णा-
के डोरे ही से खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो।।
प्रणय और पुस्र्षार्थ तुम्हारा
मनमोहिनी धरा के बल हैं
दिवस-रात्रि, बीहड़-बस्ती सब
तेरी ही छाया के छल हैं।
प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये
जो बलि के फूलों खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो।।
কবিতা ৪
अमर राष्ट्र Amar Rastra
छोड़ चले, ले तेरी कुटिया,
यह लुटिया-डोरी ले अपनी,
फिर वह पापड़ नहीं बेलने;
फिर वह माल पडे न जपनी।
यह जागृति तेरी तू ले-ले,
मुझको मेरा दे-दे सपना,
तेरे शीतल सिंहासन से
सुखकर सौ युग ज्वाला तपना।
सूली का पथ ही सीखा हूँ,
सुविधा सदा बचाता आया,
मैं बलि-पथ का अंगारा हूँ,
जीवन-ज्वाल जलाता आया।
एक फूँक, मेरा अभिमत है,
फूँक चलूँ जिससे नभ जल थल,
मैं तो हूँ बलि-धारा-पन्थी,
फेंक चुका कब का गंगाजल।
इस चढ़ाव पर चढ़ न सकोगे,
इस उतार से जा न सकोगे,
तो तुम मरने का घर ढूँढ़ो,
जीवन-पथ अपना न सकोगे।
श्वेत केश?- भाई होने को-
हैं ये श्वेत पुतलियाँ बाकी,
आया था इस घर एकाकी,
जाने दो मुझको एकाकी।
अपना कृपा-दान एकत्रित
कर लो, उससे जी बहला लें,
युग की होली माँग रही है,
लाओ उसमें आग लगा दें।
मत बोलो वे रस की बातें,
रस उसका जिसकी तस्र्णाई,
रस उसका जिसने सिर सौंपा,
आगी लगा भभूत रमायी।
जिस रस में कीड़े पड़ते हों,
उस रस पर विष हँस-हँस डालो;
आओ गले लगो, ऐ साजन!
रेतो तीर, कमान सँभालो।
हाय, राष्ट्र-मन्दिर में जाकर,
तुमने पत्थर का प्रभू खोजा!
लगे माँगने जाकर रक्षा
और स्वर्ण-रूपे का बोझा?
मैं यह चला पत्थरों पर चढ़,
मेरा दिलबर वहीं मिलेगा,
फूँक जला दें सोना-चाँदी,
तभी क्रान्ति का समुन खिलेगा।
चट्टानें चिंघाड़े हँस-हँस,
सागर गरजे मस्ताना-सा,
प्रलय राग अपना भी उसमें,
गूँथ चलें ताना-बाना-सा,
बहुत हुई यह आँख-मिचौनी,
तुम्हें मुबारक यह वैतरनी,
मैं साँसों के डाँड उठाकर,
पार चला, लेकर युग-तरनी।
मेरी आँखे, मातृ-भूमि से
नक्षत्रों तक, खीचें रेखा,
मेरी पलक-पलक पर गिरता
जग के उथल-पुथल का लेखा !
मैं पहला पत्थर मन्दिर का,
अनजाना पथ जान रहा हूँ,
गूड़ँ नींव में, अपने कन्धों पर
मन्दिर अनुमान रहा हूँ।
मरण और सपनों में
होती है मेरे घर होड़ा-होड़ी,
किसकी यह मरजी-नामरजी,
किसकी यह कौड़ी-दो कौड़ी?
अमर राष्ट्र, उद्दण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र !
यह मेरी बोली
यह `सुधार’ `समझौतों’ बाली
मुझको भाती नहीं ठठोली।
मैं न सहूँगा-मुकुट और
सिंहासन ने वह मूछ मरोरी,
जाने दे, सिर, लेकर मुझको
ले सँभाल यह लोटा-डोरी !
কবিতা ৫
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं Anjali Ke Phool Gire Jate Hain
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं
आये आवेश फिरे जाते हैं।
चरण-ध्वनि पास-दूर कहीं नहीं
साधें आराधनीय रही नहीं
उठने,उठ पड़ने की बात रही
साँसों से गीत बे-अनुपात रही
बागों में पंखनियाँ झूल रहीं
कुछ अपना, कुछ सपना भूल रहीं
फूल-फूल धूल लिये मुँह बाँधे
किसको अनुहार रही चुप साधे
दौड़ के विहार उठो अमित रंग
तू ही `श्रीरंग’ कि मत कर विलम्ब
बँधी-सी पलकें मुँह खोल उठीं
कितना रोका कि मौन बोल उठीं
आहों का रथ माना भारी है
चाहों में क्षुद्रता कुँआरी है
आओ तुम अभिनव उल्लास भरे
नेह भरे, ज्वार भरे, प्यास भरे
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं
आये आवेश फिरे जाते हैं।।
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